डंडा, लाठी और बाँस आज तुम कहाते हो
अबे ओ बांस, फिर भी बेवजह इतराते हो
खपच्ची रूप तुम्हारा पतंग को प्यारा है
सूप बनकर के कभी कृष्ण को भी तारा है
राम के बाणों की असली उड़ान तुम्ही थे
कभी बलदाऊ ने मुगदर तुम्हें बनाया था
कृष्ण की बांसुरी की मधुर तान तुम्ही थे
बांस से ही तो शब्द ‘वंश’ चलन पाया था
बंसीधर कृष्ण के उस नाम में भी तुम्ही थे
डलिया बनकर के शिवाजी के काम आये थे
बुंदेलों-हरबोलों की वो आन बान तुमसे थी
और मथुरा में लठामार होली तुमसे थी
गरीब गुरबा के छप्पर की शान तुम्ही हो
सुहागनों के मंडपों की जान तुम ही हो
लेखनी बनके तुम्ही ने सृजन कराया है
और पिस-पिसके तुमने पुस्तकों को जाया है
शक्तिवर्धक दवाओं में काम आते हो
अर्थी में लग के अंत साथ में ही जाते हो
ज़रा सोचो तुम्हारी गत क्या बन गयी यारों
कभी सीढ़ी हुआ करते थे, याद है प्यारों ?
झाडू के तिनकों ने सत्ता में दम दिखलाया है
लाठी का युग भी असल में अभी-ही आया है
बांस भैया, ये नया युग है खुद को कुछ बदलो
दिन सुधर जायेंगे सत्ता में कहीं तो घुस लो
-अक्स अलीग
मजदूर दिवस, 2016